बुधवार, 28 सितंबर 2011

नवरात्रि में दुर्गा सप्तशती पाठ से लाभ

दुर्गा सप्तशती अपने आपमें एक अदभुत तंत्र ग्रंथ है। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती का संबंध ऋगवेद, यजुर्वेद और सामवेद से है, ये तीनो वेद तीनो महाशक्तियों का स्वरूप है।
इसी प्रकार शाक्त तंत्र, शैव तंत्र और वैष्णव तंत्र उपरोक्त तीनो स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं। अत: सप्तशती तीनो वेदो का प्रतिनिधित्व करता है। दुर्गा सप्तशती में (700) सात सौ प्रयोग है जो इस प्रकार है- मारण के 90, मोहन के 90, उच्चाटन के दो सौ(200), स्तंभन के दो सौ (200), विद्वेषण के साठ (60) और वशीकरण के साठ (60)। इसी कारण इसे सप्तशती कहा जाता है।

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

नवरात्र घट स्थापना- नवरात्र का श्रीगणेश शुक्ल पतिपदा को प्रातरूकाल के शुभमहूर्त में घट स्थापना से होता है। घट स्थापना हेतु मिट्टी अथवा साधना के अनुकूल धातु का कलश लेकर उसमे पूर्ण रूप से जल एवं गंगाजल भर कर कलश के उपर नारियल को लाल वस्त्रध्चुनरी से लपेट कर अशोक वृक्ष या आम के पाँच पत्तो सहित रखना चाहिए। पवित्र मिट्टी में जौ के दाने तथा जल मिलाकर वेदिका का निर्माण के पश्चात उसके उपर कलश स्थापित करें। स्थापित घट पर वरूण देव का आह्वान कर पूजन सम्पन्न करना चाहिए। फिर रोली से स्वास्तिक बनाकर अक्षत एवं पुष्प अर्पण करना चाहिए।

कुल्हड़ में जौ बोना - नवरात्र के अवसर पर नवरात्रि करने वाले व्यक्ति विशेष शुद्ध मिट्टी मे, मिट्टी के किसी पात्र में जौ बो देते है। दो दिनो के बाद उसमे अंकुर फुट जाते है। यह काफी शुभ मानी जाती है।

मूर्ति स्थापना- माँ दुर्गा, श्री राम, श्री कृष्ण अथवा हनुमान जी की मूर्ती या तसवीर को लकड़ी की चौकी पर लाल अथवा पीले वस्त्र (अपनी सुविधानुसार) के उपर स्थापित करना चाहिए। जल से स्नान के बाद, मौली चढ़ाते हुए, रोली अक्षत(बिना टूटा हुआ चावल), धूप दीप एवं नैवेध से पूजा अर्चना करना चाहिए।

अखण्ड ज्योति- नवरात्र के दौरान लगातार नौ दिनो तक अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित की जाती है। किंतु यह आपकी इच्छा एवं सुविधा पर है। आप केवल पूजा के दौरान ही सिर्फ दीपक जला सकते है।

चैत्र व आश्विन माह में ही नवरात्रि पर्व क्यों?

वरात्र पर्व हमेशा चैत्र और आश्विन मास में मनाये जाने के पीछे एक वैज्ञानिक कारण है कि मौसम-विज्ञान के अनुसार ये दोनों ही मास सर्दी-गर्मी की सन्धि के महत्वपूर्ण मास हैं। शीत ऋतु का आगमन आश्विन मास से आरंभ हो जाता है और ग्रीष्म का चैत्र मास से। ज्यों हि एक ऋतु का पदार्पण हुआ कि सम्पूर्ण भौतिक जगत में एक हलचल प्रारंभ होने लगती है। पेड-पौधे,वनस्पति जगत,जल,आकाश और वायुमंडल तक सबमें परिवर्तन होने लगता है। ये दोनो मास दोनों ऋतुओं के संधिकाल है, अतः हमारे स्वास्थय पर इनका विशेष प्रभाव पडता है।

चैत्र में गर्मी के प्रारंभ हो जाने से पिछले कईं मास से जो रक्त का प्रवाह मंद था, अब वो हमारी नसों नाडियों में तीव्र गति से प्रवाहित होने लगता है। केवल रक्त की ही बात नहीं, यह नियम शरीर के वात, पित्त, कफ इन तीनों तत्वों पर भी लागू होता है। यही कारण है कि संसार के अधिकांश रोगी इन दोनों मासों में या तो शीघ्र अच्छे हो जाते हैं या फिर मृ्त्यु को प्राप्त होते हैं। इसलिए शास्त्रकारों नें सन्धि काल के इन्ही मासों में शरीर को पूर्ण स्वस्थ रखने के लिए नौ दिन तक विशेष रूप से व्रत-उपवास आदि का विधान किया है।

नव रक्त संचारी वसन्त के इन मादक दिनों में मन में विषय वासना की नईं तरंगें भी मन को खूब आंदोलित करती हैं, किन्तु यदि ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इन नौ दिनों में आपके विधिपूर्वक व्रत-उपवास का आश्रय लिया तो समझिए कि आगामी ऋतुकाल के लिए आपने अपने भीतर शक्ति का संचय कर लिया, फल आपको ये मिलेगा कि आगामी ऋतु परिवर्तन तक न तो कोई रोग,व्याधी और न किसी प्रकार की चित्त की विकलता ही आपको पीडित करेगी। नवरात्रि के साथ ही रात्रि शब्द जुडा हुआ है। इस विषय में शास्त्र वाक्य है कि रात्रि रूपा यतोदेवी, दिवा रूपो: दिन को शिव(पुरूष) रूप में तथा रात्रि को (शक्ति) प्रकृ्ति रूपा माना गया है। एक ही तत्व के दो स्वरूप हैं फिर भी शिव(पुरूष) का अस्तित्व उसकी शक्ति(प्रकृ्ति) पर ही आधारित है।

या देवी सर्व भूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता
नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं नमो नमः ।।

नवरात्रि में माता के नौ स्वरुपों की पूजा


वरात्रि का त्योहार नौ दिनों तक चलता है। इन नौ दिनों में तीन देवियों पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों की पूजा की जाती है। पहले तीन दिन पार्वती के तीन स्वरुपों (कुमार, पार्वती और काली), अगले तीन दिन लक्ष्मी माता के स्वरुपों और आखिरी के तीन दिन सरस्वती माता के स्वरुपों की पूजा करते है।

प्रथम दुर्गा - शैलपुत्री
आदिशक्ति श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनके पूजन से मूलाधर चक्र जाग्रत होता है, जिससे साधक को मूलाधार चक्र जाग्रत होने से प्राप्त होने वाली सिद्धियां प्राप्त होती हैं।

द्वितीय दुर्गा -श्री ब्रह्मचारिणी
आदिशक्ति श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोप तपस्या की थी। अतरू ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इनकी उपासना से मनुष्य के तप, त्याग, वैराग्य सदाचार, संयम की वृद्धि होती है तथा मन कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता।

तृतीय दुर्गा - श्री चंद्रघंटा
आदिशक्ति श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतरू प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है।

चतुर्थ दुर्गा - श्री कूष्मांडा
आदिशक्ति श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा के पूजन से अनाहत चक्र जाग्रति की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है।

पंचम दुर्गा - श्री स्कंदमाता
आदिशक्ति श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा मृत्युलोक में ही साधक को परम शांति और सुख का अनुभव होने लगता है। उसके लिए मोक्ष का द्वार स्वंयमेव सुलभ हो जाता है।

षष्ठम दुर्गा - श्री कात्यायनी
आदिशक्ति श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है। श्री कात्यायनी की उपासना से आज्ञा चक्र जाग्रति की सिद्धियां साधक को स्वयंमेव प्राप्त हो जाती है। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौलिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है तथा उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं।

सप्तम दुर्गा - श्री कालरात्रि
आदिशक्ति श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री कालरात्रि की साधना से साधक को भानुचक्र जाग्रति की सिद्धियां स्वयंमेव प्राप्त हो जाती हैं।

अष्टम दुर्गा - महागौरी
आदिशक्ति श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतरू गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन और अर्चन किया जाता है। इन दिन साधक को अपना चित्त सोमचक्र (उर्ध्व ललाट) में स्थिर करके साधना करनी चाहिए। श्री महागौरी की आराधना से सोम चक्र जाग्रति की सिद्धियों की प्राप्ति होती है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं।

नवम् दुर्गा - श्री सिद्धिदात्री
आदिशक्ति श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम् दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त निर्वाण चक्र (मध्य कपाल) में स्थिर कर अपनी साधना करनी चाहिए। श्री सिद्धिदात्री की साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। सृष्टि में कुछ भी उसके लिए अगम्य नहीं रह जाता।

- राजकुमार सोनी


नैमित्तिक-साधना का महापर्व ‘नवरात्र’

भारतीय चिंतनधारा मेंसाधनाआध्यात्मिक ऊर्जा और दैवी चेतना के विकास का सबसे विश्वसनीय साधन माना जाता है। तन्त्रगमों के अनुसार यह साधना नित्य एवं नैमित्तिक भेद से दो प्रकार की होती है, जो साधना जीवनभर एवं निरंतर की जाती है, वह नित्य साधना कहलाती है।
रुद्रयामल तंत्र के अनुसार ऐसी साधना साधक काधर्महै, किन्तु संसार एवं घर गृहस्थी के चक्रव्यूह में फंसे आम लोगों के पास तो इतना समय होता है और नहीं इतना सामर्थ्य कि वे नित्य साधना कर सकें। अत: सद्गृहस्थों के जीवन में आने वाले कष्टोंध्दुरूखों की निवृत्ति के लिए हमारे ऋषियों ने नैमित्तिक साधना का प्रतिपादन किया है। नैमित्तिक-साधना के इस महापर्व कोनवरात्रकहते हैं।

दुर्गापूजा का प्रयोजन
महामाया के प्रभाववश सांसारिक प्राणी अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर कभी जाने और कभी अनजाने में दुरूखों के दलदल में फंसता चला जाता है। जैसा कि मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है-
ज्ञानिनामपि चेतांहि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रगच्छति।।

इन सांसारिक कष्टों से, जिनको धर्म की भाषा में दुर्गति कहते हैं-इनसे मुक्ति के लिए माँ दुर्गा की उपासना करनी चाहिए क्योंकिआराधिता सैव नृणां भोगस्वगपिवर्गहामार्कण्डेय पुराण के इस वचन के अनुसारमाँ दुर्गा की उपासना करने से स्वर्ग जैसे भोग और मोक्ष जैसी शान्ति मिल जाती है।भारतीय जनमानस उस आद्या शक्तिदुर्गाको माँ या माता के रूप में देखता और मानता है। इस विषय में आचार्य शंकर का मानना है कि जैसे पुत्र के कुपुत्र होने पर भी माता कुमाता नहीं होती। वैसी भगवती दुर्गा अपने भक्तों का वात्सल्य भाव से कल्याण करती है। अतरू हमें उनकी पूजाध्उपासना करनी चाहिए।

नवदुर्गा
एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा’- दुर्गासप्तशती के इस वचन के अनुसार वह आद्यशक्तिएकमेवऔरअद्वितीयहोते हुए भी अपने भक्तों का कल्याण करने के लिए - 1. शैलपुत्री, 2. ब्रह्मचारिणी, 3. चन्द्रघण्टा, 4. कूष्माण्डा, 5. स्कन्धमाता, 6. कात्यायनी, 7. कालरात्रि, 8. महागौरी एवं 9. सिद्धिदात्री - इन नवदुर्गा के रूप में अवतरित होती है। वही जगन्माता सत्त्व, रजस् एवं तमस्- इन गुणों के आधार पर महाबाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करती हैं।

दुर्गा-दुर्गतिनाशिनी
रुद्रयामल तन्त्र में आद्याशक्ति केदुर्गानाम का निर्वचन करते हुए प्रतिपादित किया गया है - ‘कि जो दुर्ग के समान अपने भक्तों की रक्षा करती है अथवा जो अपने भक्तों को दुर्गति से बचाती है, वह आद्याशक्तिदुर्गाकहलाती है।

दुर्गापूजा का काल
वैदिक ज्योतिष की काल-गणना के अनुसार हमारा एक वर्ष देवी-देवताओं का एकअहोरात्र’ (दिन-रात) होता है। इस नियम के अनुसार मेषसंक्रांति को देवताओं का प्रातरूकाल और तुला संक्रांति को उनका सायंकाल होता है।
इसी आधार पर शाक्त तन्त्रों ने मेषसंक्रांति के आसपास चेत्र शुक्ल प्रतिपदा से बासन्तिक नवरात्रि और तुला संक्रांति के आसपास आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र का समय निर्धारित किया है। नवरात्रि के ये नौ दिनदुर्गा पूजाके लिए सबसे प्रशस्त होते हैं।

शारदीय नवरात्र का महत्व
इन दोनों नवरात्रियों में शारदीय नवरात्र की महिमा सर्वोपरि है।शरदकाले महापूजा क्रियते या वाष्रेकी।दुर्गा सप्तशती के इस वचन के अनुसार शारदीय नवरात्र की पूजा वार्षिक पूजा होने के कारणमहापूजाकहलाती है। गुजरात-महाराष्ट्र से लेकर बंगाल-असम तक पूरे उत्तर भारत में इन दिनोंदुर्गा पूजाका होना, घर-घर में दुर्गापाठ, व्रत-उपवास एवं कन्याओं का पूजन होगा - इसकी महिमा और जनता की आस्था के मुखर साक्ष्य हैं।

कन्या-पूजन
अपनी कुल परम्परा के अनुसार कुछ लोग नवरात्र की अष्टमी को और कुछ लोग नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा एवं हवन करने के बाद कन्यापूजन करते हैं। कहीं-कहीं यह पूजन सप्तमी को भी करने का प्रचलन है। कन्या पूजन में दो वर्ष से दस वर्ष तक की आयु वाली नौ कन्याओं और एक बटुक का पूजन किया जाता है। इसकी प्रक्रिया में सर्वप्रथम कन्याओं के पैर धोकर, उनके मस्तक पर रोली-चावल से टीका लगाकर, हाथ में कलावा (मौली) बाँध, पुष्प या पुष्पमाला समर्पित कर कन्याओं को चुनरी उढ़ाकर हलवा, पूड़ी, चना एवं दक्षिणा देकर श्रद्धापूर्वक उनको प्रणाम करना चाहिए। कुछ लोग अपनी परंपरा के अनुसार कन्याओं को चूड़ी, रिबन श्रृंगार की वस्तुएं भी भेंट करते हैं। कन्याएं माँ दुर्गा का भौतिक एक रूप हैं। इनकी श्रृद्धाभक्ति से पूजा करने से माँ दुर्गा प्रसन्न होती हैं।

नवरात्र में उपवास
व्रतराज के अनुसार नवरात्र के व्रत में - ‘निराहारो फलाहारो मिताहारो हि सम्मतरू’ - अर्थात् निराहार, फलाहार या मिताहार करके व्रत रखना चाहिए। निराहार व्रत में केवल एक जोड़ा लौंग के साथ जल पीकर व्रत रखा जाता है। फलाहारी व्रत में एक समय फलाहार की वस्तुओं से भोजन किया जाता है, और मिताहारी व्रत में शुद्ध, सात्विक एवं शाकाहारीहविष्यान्नका ग्रहण होता है। नवरात्रि के व्रत में नौ दिन व्रत रखकर नवमी को कन्या पूजन के बाद पारणा किया जाता है। जिन लोगों के अष्टमी पुजती है, वे अष्टमी को कन्या पूजन के बाद पारणा कर लेते हैं। यदि नौ दिन का व्रत रखने का सामर्थ्य हो, तो नवरात्र की प्रतिपदा, सप्तमी अष्टमी एवं नवमी में किसी एक या दो दिन का व्रत अपनी श्रद्धा एवं शक्ति के अनुसार रखना चाहिए। तन्त्रगम के अनुसार व्रत के दिनों में आचार एवं विचार की शुद्धता का पालन करने पर जोर दिया गया है। अतरू व्रत के दिनों में चोरी, झूठ, क्रोध, ईर्ष्या, राग, द्वेष एवं किसी भी प्रकार का छल-छिद्र नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्रत के दिनों में मन, वचन एवं कर्म से किसी का दिल दुरूखाना नहीं चाहिए। जहां तक सम्भव हो, दूसरों का भला करना चाहिए।

पूजा के उपचार
पूजा में जो सामग्री चढ़ाई जाती है, उनको उपचार कहते हैं, ये पंचोपचार, दशोपचार एवं षोडशोपचार के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। पंचोपचार - गन्ध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य - इन पाँचों को पंचोपचार कहते हैं। दशोपचार -1 पाध, 2. अर्घ्य, 3. आचमनीय, 4. मधुपर्क, 5. आचमनीय, 6. गन्ध, 7. पुष्प, 8. धूप, 9. दीप एवं 10. नैवेद्य - इनको दशोपचार कहते हैं। षोडशोपचार - 1. आसन, 2. स्वागत, 3. पाध, 4. अर्घ्य, 5. आचमनीय, 6. मधुपर्क, 7. आचमन, 8. स्नान, 9. वस्त्र, 10. आभूषण, 11. गन्ध, 12. पुष्प, 13. धूप, 14. दीप, 15. नैवेद्य एवं प्रणामाज्जलि, इनको षोडशोपचार कहते हैं।

व्रत के फलाहार की वस्तुएं
आलू, शक रकन्द, जिमिकन्द, दूध, दही, खोआ, खोआ से बनी मिठाइयों, कुट्ट, सिन्घाड़ा, साबूदाना, मूंगफली, मिश्री, नारियल, गोला, सूखे मेवा एवं मौसम के सभी फल-व्रतोपवास के फलाहार में प्रशस्त माने गये हैं। फलाहार की कोई भी वस्तु तेल में नहीं बनायी जाती और सादा नमक के स्थान पर सैन्धा (लाहौरी) नमक प्रयोग में लाया जाता है।

सप्तमी, अष्टमी या नवमी की पूजा
नवरात्र में अपनी कुल परम्परा के अनुसार सप्तमी, अष्टमी या नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा की जाती है। इसमें एकाग्रतापूर्वक जप, श्रद्धा एवं भक्ति से पूजन एवं हवन, मनोयोगपूर्वक पाठ तथा विधिवत कन्याओं का पूजन किया जाता है। इससे मनुष्य की सभी कामनाएं पूरी हो जाती हैं।

शनिवार, 24 सितंबर 2011

देश में प्रसिद्द देवी मंदिर

देवी भागवत पुराण में 108, कालिकापुराण में छब्बीस, शिवचरित्र में इक्यावन, दुर्गा सप्तशती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52 बताई गई है। साधारत: 51 शक्ति पीठ माने जाते हैं, लेकिन हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं वर्तमान में माँ दुर्गा के प्रसिद्ध मंदि’रों की जानकारी -

1.दाक्षायनी (मानस)
तिब्बत स्थित कैलाश मानसरोवर के मानसा के निकट एक पाषाण शिला पर माता का दायाँ हाथ गिरा था। यहीं पर माता साक्षात विराजमान हैं। यह माता का मुख्य स्थान है।

2.माँ वैष्णोदेवी
भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर के जम्मू के पास कटरा से माता वैष्णोदेवी के दर्शनार्थ यात्रा शुरू होती है। कटरा जम्मू से 50 किलोमीटर दूर है। कटरा से पहाड़ी लगभग 14 किमी की पर्वतीय श्रृंखला की सबसे ऊँची चोटी पर विराजमान है माँ वैष्णोदेवी। यहाँ देशभर से लाखों भक्त दर्शन के लिए आते हैं।

3.मनसादेवी
भारतीय राज्य उत्तरप्रदेश के हरिद्वार शहर में शक्ति त्रिकोण है। इसके एक कोने पर नीलपर्वत पर स्थित भगवती देवी चंडी का प्रसिद्ध स्थान है। दूसरे पर दक्षेश्वर स्थान वाली पार्वती। कहते हैं कि यहीं पर सती योग अग्नि में भस्म हुई थीं और तीसरे पर बिल्वपर्वतवासिनी मनसादेवी विराजमान हैं।

मनसादेवी को दुर्गा माता का ही रूप माना जाता है। शिवालिक पहाड़ पर स्थित इस मंदिर पर देश-विदेश से हजारों भक्त आकर पूजा-अर्चना करते हैं। यह मंदिर बहुत जाग्रत है।

4.पावागढ़-काली माता
गुजरात की प्राचीन राजधानी चंपारण के पास वडोदरा शहर से लगभग 50 किलोमीटर दूर पावागढ़ की पहाड़ी की चोटी पर स्थित है माँ काली का मंदिर। काली माता का यह प्रसिद्ध मंदिर माँ के शक्तिपीठों में से एक है। माना जाता है कि पावागढ़ में माँ के वक्षस्थल गिरे थे।

5.नयना देवी
कुमाऊँ क्षेत्र के नैनीताल की सुरम्य घाटियों में पर्वत पर एक बड़ी-सी झील त्रिऋषिसरोवर अर्थात अत्रि, पुलस्त्य तथा पुलह की साधना स्थली के समीप मल्लीताल वाले किनारे पर नयना देवी का भव्य मंदिर है। प्राचीन मंदिर तो पहाड़ के फूटने से दब गया, लेकिन उसी के पास स्थित है यह मंदिर।

6.शारदा मैया
भारतीय राज्य मैहर (मैयर) नगर की पहाड़ी पर माता शारदा का प्राचीन मंदिर है जिसे आला और उदल की इष्टदेवी कहा जाता है। यह मंदिर बहुत जागृत एवं चमत्कारिक माना जाता है। कहते हैं कि रात को आला-उदल आकर माता की आरती करते हैं जिसकी आवाजनीचे तक सुनाई देती है।

7.कालका माता
भारतीय राज्य बंगाल के कोलकाता शहर के हावड़ा स्टेशन से पाँच मील दूर भागीरथी के आदि स्रोत पर कालीघाट नामक स्थान पर कालीकाजी का मंदिर है। रामकृष्ण परमहंस यहीं पर साधना करते थे। यह बहुत ही जाग्रत शक्तिपीठ है।

8.ज्वालामुखी
भारत के हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में जहाँ माता की जीभ गिरी थी उसे ज्वालाजी स्थान कहते हैं। इस स्थान से आदिकाल से ही पृथ्वी के भीतर से कई अग्निशिखाएँ निकल रही हैं। यह बहुत ही जाग्रत स्थान है।

9.भवानी माता
महाराष्ट्र के पूना में भगवती के दो मंदिर हैं पहला पार्वती का प्रसिद्ध मंदिर दूसरा प्रतापगढ़ नामक स्थान पर भगवती भवानी का मंदिर। भवानी माता छत्रपति शिवाजी महाराज की इष्टदेवी हैं।

10.तुलजा भवानी
महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में स्थित है तुलजापुर। एक ऐसा स्थान जहाँ छत्रपति शिवाजी की कुलदेवी माँ तुलजा भवानी स्थापित हैं, जो आज भी महाराष्ट्र अन्य राज्यों के कई निवासियों की कुलदेवी के रूप में प्रचलित हैं। तुलजा माता का यह प्रमुख मंदिर है। इंदौर के पास देवास की टेकरी पर भी तुलजा भवानी का प्रसिद्ध मंदिर है।

11.माँ चामुंडा देवी
चामुंडा माता के मंदिर कई हैं किंतु हिमाचल के धर्मशाला से 15 किमी पर स्थित बंकर नदी के किनारे बहुत ही प्राचीन मंदिर स्थित है। इसके अलावा राजस्थान में जोधपुर के मेहरानगढ़ किले पर स्थित चामुंडा माता का मंदिर भी प्रख्यात है। इंदौर के पास देवास की पहाड़ी पर भी माँ चामुंडा का प्रसिद्ध मंदिर है।

12.अम्बाजी मंदिर
गुजरात का अम्बाजी मंदिर बहुत ही प्रसिद्ध है। अम्बाजी मंदिर गुजरात और राजस्थान की सीमा से लगा हुआ है। माउंट आबू से 45 किलोमीटर दूरी पर स्थित है अम्बा माता का मंदिर जहाँ लाखों भक्त आते हैं।

13.अर्बुदा देवी
भारतीय राज्य राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित नीलगिरि की पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी पर बसे माउंट आबू पर्वत पर स्थित अर्बुदा देवी के मंदिर को 51 प्रधान शक्ति पीठों में गिना जाता है।

14 देवास माता टेकरी
मध्यप्रदेश के इंदौर शहर के पास स्थित जिला देवास की टेकरी पर स्थित माँ भवानी का यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। लोक मान्यता है कि यहाँ देवी माँ के दो स्वरूप अपनी जाग्रत अवस्था में हैं। इन दोनों स्वरूपों को छोटी माँ और बड़ी माँ के नाम से जाना जाता है। बड़ी माँ को तुलजा भवानी और छोटी माँ को चामुण्डा देवी का स्वरूप माना गया है।

15. बिजासन टेकरी
मध्यप्रदेश की व्यावसायिक नगरी इंदौर में बिजासन माता की प्रसिद्धि भी दूर दूर तक है। वैष्णोदेवी की मूर्तियों के समान यहाँ भी माँ की पाषाण पिंडियाँ हैं। यह मंदिर इंदौर एयरपोर्ट से कुछ ही दूरी पर स्थित है।

16.गढ़ कालिका-हरसिद्धि
भारत के मध्यप्रदेश राज्य के नगर उज्जैन में महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर के समीप शिप्रा नदी के तट पर हरसिद्धि माता का मंदिर है जो राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी हैं। उज्जैन के कालीघाट स्थित कालिका माता का यहाँ बहुत ही प्राचीन मंदिर है, जिसे गढ़ कालिका के नाम से जाना जाता है। इसे कालिदास की इष्टदेवी माना जाता है।

17.मुम्बादेवी
महाराष्ट्र के प्रमुख महानगर मुंबई की मुम्बादेवी, कालबादेवी और महालक्ष्मी का मंदिर प्रसिद्ध है। महालक्ष्मी का मंदिर समुद्र तट पर, मुम्बादेवी के समीप तालाब है और कालादेवी का मंदिर अति प्राचीन माना जाता है।

18.सप्तश्रृंगी देवी
सप्तश्रृंगी देवी नासिक से करीब 65 किलोमीटर की दूरी पर 4800 फुट ऊँचे सप्तश्रृंग पर्वत पर विराजित हैं। सह्याद्री की पर्वत श्रृंखला के सात शिखर का प्रदेश यानी सप्तश्रृंग पर्वत, जहाँ एक तरफ गहरी खाई और दूसरी ओर ऊँचे पहाड़ पर हरियाली है। इसे अर्धशक्तिपीठ माना जाता है।

19.माँ मनुदेवी
महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश राज्यों को अलग करने वाला सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं कीवादियों में बसा हुआ है। यहाँ खानदेशवासियों की श्रीक्षेत्र कुलदेवी मनुदेवी का मंदिर। भुसावल से यावल 20 किमी की दूरी पर है। यावल से कुछ ही दूर आड़गाव में मनुदेवी का स्थान है।

20.त्रिशक्ति पीठम
श्रीकाली माता अमरावती देवस्थानम। इस पवित्र स्थान को त्रिशक्ति पीठम के नाम से भी जाना जाता है। आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा के गिने-चुने मंदिरों में से एक कृष्णावेणी नदी के तट पर बसा यह पवित्र मंदिर बेहद अलौकिक है।

21.आट्टुकाल भगवती
केरल के तिरुवनंतपुरम शहर में स्थित आट्टुकाल भगवती मंदिर की प्रसिद्धि पूरे दक्षिण भारत में है। पराशक्ति जगदम्बा केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम शहर की दक्षिण-पूर्व दिशा में आट्टुकाल नामक गाँव में भक्तजनों को मंगल आशीष देते हुए विराजती हैं।

22.श्रीलयराई देवी
गोवा प्रांत के गाँव में श्रीलयराई देवी का स्थान बहुत ही प्राचीन और प्रसिद्ध है। नवरात्र में यहाँ पूरे गाँव के लोग अंगारे पर बहुत ही सहजता से चलते हैं और उन्हें कुछ नहीं होता।

23. कामाख्या
भारतीय राज्य असम में गुवाहाटी से दो मिल दूर पश्चिम मेंनीलगिरि पर्वत पर स्थित सिद्धि पीठ को कामाख्या या कामाक्षा पीठ कहते हैं। कालिका पुराण में इसका उल्लेख मिलता है।

24.गुह्म कालिका
नेपाल के काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ मंदिर से कुछ ही दूर स्थित वागमती नदी के गुह्मेश्वरीघाट पर माता गुह्मेश्वरी का मंदिर है। नेपाल के राजा की कुल देवी माता के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।

25.महाकाली
काशी में शक्ति का त्रिकोण है उसके कोनों पर क्रमशरू दुर्गाजी (महाकाली), महालक्ष्मी तथा वागीश्वरी (महासरस्वती) विराजमान हैं। काशीक्षेत्र स्थित इसी स्थान को शक्तिपीठ कहा जाता है।

26.कौशिकी देवी
भारत के उत्तरांचल राज्य में काषाय पर्वतपर स्थित अल्मोड़ा नगर से आठ मील दूर कौशिकी देवी का स्थान है। दुर्गा सप्तशती के पाँचवें अध्याय में इसका उल्लेख मिलता है।

27.सातमात्रा
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर से तीन मील पूर्व में नर्मादा के तट पर महत्वपूर्ण श्सातमात्राश् शक्तिपीठ स्थित है जिसे सप्तमात्रा भी कहा जाता है। दुर्गा सप्तशती में इसकी उत्पत्ति के बारे में उल्लेख मिलता है।

28.कालका
देहली-शिमला रोड पर कालका नामक जंक्शन है। यहीं पर भगवती कालिका का प्राचीन मंदिर है। दुर्गा सप्तशती में इसका उल्लेख मिलता है।

29. नगरकोट की देवी
काँगड़ा पठानकोट-योगीन्द्रनगर लाइन पर एक स्टेशन है। यहाँ भगवती विद्येश्वरी का बहुत ही प्राचीन मंदिर है। इसको नगरकोट की देवी भी कहते हैं।

30. चित्तौड़
चित्तौड़ के दुर्ग के अंदर भगवती कालिका का प्राचीन मंदिर है। दुर्ग में तुलजा भवानी तथा अन्नपूर्णा के मंदिर भी हैं।

31.भगवती पटेश्वरी
भगवती पटेश्वरी मंदिर की स्थापना महाभारत काल में राजा कर्ण द्वारा हुई थी। सम्राट विक्रमादित्य ने इसका जीर्णोद्धार किया था। यह नाथ सम्प्रदाय के साधुओं का स्थान है।

32.योगमाया-कालिका
यहाँ दो शक्तिपीठ माने गए हैं। पहला कुतुबमीनार के पास योगमाया का मंदिर और दूसरा यहाँ से लगभग सात मील पर ओखला नामक ग्राम में कालिका का मंदिर है।

33. पठानकोट
पठानकोट का प्राचीन नाम पथकोट था, क्योंकि यहाँ प्राचीनकाल से ही बड़ी-बड़ी सड़कें थीं। यहीं पर जो कोट अर्थात किला है वहीं पथकोट की देवी (पठानकोट की देवी) का स्थान है। त्रिगर्त पर्वतीय क्षेत्र में इस देवी की आराधना प्राचीनकाल से ही होती रही है।

34.ललिता देवी
इलाहबाद के कड़ा नामक स्थान पर कड़े की देवी विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इसके अलावा संगम तट पर ललिता देवी का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है।

35.पूर्णागिरि
पुण्यागिरि या पूर्णागिरि स्थान अल्मोड़ा जिले के पीलीभीत मार्ग पर टनकपुर से आठ सौ मील पर नेपाल की सरहद पर शारदानदी के किनारे है। आसपास जंगल और बीच में पर्वत पर विराजमान हैं भगवती दुर्गा। इसे शक्तिपीठों में गिना जाता है।

36.माता कुडि़या
मद्रास (चेन्नई) नगर के साहूकारपेठ में सुप्रसिद्ध माता कुडि़या का मंदिर है। यहाँ कण्डे की आँच से मीठा चावल पकाकर देवी को भोग लगाया जाता है।

37.देवी चामुंडा
मैसूर की अधिष्ठात्री देवी चामुंडा हैं। मैसूर से लगी विशाल पहाड़ियों पर माता का स्थान है। चामुंडा को यहाँ भेरुण्डा भी कहते हैं।

38.विन्ध्याचल
कंस के हाथ से छूटकर जिन्होंने भविष्यवाणी की थी वही श्रीविन्ध्यवासिन हैं। यहीं पर भगवती ने शुंभ और निशुंभ को मारा था। इस क्षेत्र में शक्ति त्रिकोण है। क्रमशरू विन्ध्यवासिनी (महालक्ष्मी), कालीखोह की काली (महाकाली) तथा पर्वत पर की अष्टभुजा (महासरस्वती) विराजमान हैं।

39.तारादेवी
यह प्रदेश भी एक प्रसिद्ध शक्ति स्थल है। तारादेवी नामक स्टेशन के पास तारा का प्राचीन स्थान है और कण्डाघाट स्टेशन के पास ही देवी का प्राचीन मंदिर है।

कन्या पूजन से प्रसन्न होती है देवी दुर्गा


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श्रीमती संगीता सिंह राठौर


देवी के दर्शन करने और नौ दिन तक व्रत करने और हवन करने के बाद कन्या पूजन का बहुत महत्व है। दो वर्ष से लेकर 11 वर्ष तक की कन्या पूजन का विधान है। होम, जप और दान से देवी इतनी प्रसन्न नहीं होतीं जितनी कन्या पूजन से होती है। सच तो यह है कि छोटी बालिकाओं में देवी दुर्गा का रूप देखने के कारण श्रद्धालु उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। हमारे धर्मग्रन्थों में कन्या-पूजन को नवरात्र-व्रतका अनिवार्य अंग बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि दो से दस वर्ष तक की कन्या देवी के शक्ति स्वरूप की प्रतीक होती हैं। शुभ कार्यों का फल प्राप्त करने के लिए कन्या पूजन किया जाता है।
हिंदु धर्म में दो वर्ष की कन्या को कुमारी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसके पूजन से दुख और दरिद्रता समाप्त हो जाती है। तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति मानी जाती है। त्रिमूर्ति के पूजन से धन-धान्य का आगमन और संपूर्ण परिवार का कल्याण होता है। चार वर्ष की कन्या कल्याणी के नाम से संबोधि की जाती है। कल्याणी की पूजा से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। पांच वर्ष की कन्या रोहिणी कही जाती है। रोहिणी के पूजन से व्यक्ति रोग-मुक्त होता है। छरूवर्ष की कन्या कालिका की अर्चना से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है। सात वर्ष की कन्या चण्डिका के पूजन से ऐश्वर्य मिलता है। आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी की पूजा से वाद-विवाद में विजय तथा लोकप्रियता प्राप्त होती है। नौ वर्ष की कन्या दुर्गा की अर्चना से शत्रु का संहार होता है तथा असाध्य कार्य सिद्ध होते हैं। दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कही जाती है। सुभद्रा के पूजन से मनोरथ पूर्ण होता है तथा लोक-परलोक में सब सुख प्राप्त होते हैं। तंत्रशास्त्रके अनुसार, यदि संभव हो, तो साधक को नवरात्रमें पहले दिन एक कन्या, दूसरे दिन दो कन्या, तीसरे दिन तीन कन्या, चौथे दिन चार कन्या, पांचवेदिन पांच कन्या, छठे दिन छरूकन्या, सातवें दिन सात कन्या, आठवें दिन आठ कन्या तथा नवें दिन नौ कन्याओं का पूजन करना चाहिए। इससे मां दुर्गा प्रसन्न होकर अपने भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करती हैं। यदि भक्तों के लिए यह संभव न हो, तो वे नवरात्रकी अष्टमी अथवा नवमी के दिन अपनी साम‌र्थ्य के अनुसार, कन्या-पूजन करके भी देवी का आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। देवी के शक्तिपीठों में भी कन्याओं की नित्य पूजा होती है। शक्ति के आराधकोंके लिए कन्या ही साक्षात माता के समान होती हैं।
जिस भारतवर्ष में कन्या को देवी के रूप में पूजा जाता है, वहां आज सर्वाधिक अपराध कन्याओं के प्रति ही हो रहे हैं। वास्तव में, जो समाज कन्याओं को संरक्षण, समुचित सम्मान और पुत्रों के बराबर स्थान नहीं दे सकता है, उसे कन्या-पूजन का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। जब तक हम कन्याओं को यथार्थ में महाशक्ति, यानी देवी का प्रसाद नहीं मानेंगे, तब तक कन्या-पूजन नितान्त ढोंग ही रहेगा। सच तो यह है कि शास्त्रों में कन्या-पूजन का विधान समाज में उसकी महत्ता को स्थापित करने के लिये ही बनाया गया है।

देवी की स्तुति करते हुए कहा गया है-

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेणसंस्थिता।
नमस्तस्यैनमस्तस्यैनमस्तस्यैनमोनमरू॥

सबकी मनोकामनाएं पूरी करती है माँ दुर्गा

भारत के कर्म भूमि के सपूतों के लिएमाँ दुर्गाश् की पूजा आराधना ठीक उसी प्रकार कल्याणकारी है जिस प्रकार घने तिमिर अर्थात्अंधेरे में घिरे हुए संसार के लिए भगवान सूर्य की एक किरण। जिस व्यक्ति को बार-बार कर्म करने पर भी सफलता मिलती हो, उचित आचार-विचार के बाद भी रोग पीछा छोड़ते हो, अविद्या, दरिद्रता, (धनहीनता) प्रयासों के बाद भी आक्रांत करती हो या किसी नशीले पदार्थ भाँग, अफीम, धतूरे का विष सर्प, बिच्छू आदि का विष जीवन को तबाह कर रहा हो।
मारण-मोहन अभिचार के प्रयोग अर्थात्‌ (मंत्र-यंत्र), कुलदेवी-देवता, डाकिनी-शाकिनी, ग्रह, भूत-प्रेत बाधा, राक्षस-ब्रह्मराक्षस आदि से जीना दुर्भर हो गया हो। चोर, लुटेरे, अग्नि, जल, शत्रु भय उत्पन्न कर रहे हों या स्त्री, पुत्र, बांधव, राजा आदि अनीतिपूर्ण तरीकों से उसे देश या राज्य से बाहर कर दिए हो, सारा धन राज्यादि हड़प लिए हो। उसे दृढ़ निश्चिय होकर श्रद्धा व विश्वासपूर्वक माँ भगवती की शरण में जाकर स्वयं व वैदिक मंत्रों में निपुण विद्वान ब्राह्मण की सहायता से माँ भगवती देवी की आराधना तन, मन, धन से करना चाहिए। माँ से प्रार्थना करते हुए- हे विश्वेश्वरी! हे परमेश्वरी! हे जगदेश्वरी,! हे नारायणी! हे शिवे! हे दुर्गा! मेरी रक्षा करो, मेरा कल्याण करो। मैं अनाथ हूँ, आपकी शरण में हूँ आदि। इस प्रकार भक्तिपूर्वक समर्पित होने पर जहाँ नाना प्रकार के कष्ट मिट जाते हैं वहीं जीवन में अनेक प्रकार से रक्षा प्राप्त होती है। अर्थात्‌ माँ दुर्गा की आराधना से व्यक्ति एक सद्गृहस्थ जीवन के अनेक शुभ लक्षणों धन, ऐश्वर्य, पत्नी, पुत्र, पौत्र व स्वास्थ्य से युक्त हो जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को भी सहज ही प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं बीमारी, महामारी, बाढ़, सूखा, प्राकृतिक उपद्रव व शत्रु से घिरे हुए किसी राज्य, देश व सम्पूर्ण विश्व के लिए भी माँ भगवती की आराधना परम कल्याणकारी है। चैत्र की शुक्ल नवमी तिथि में अखिल विश्व के आधार प्रभु श्रीराम ने जन्म लेकर भारतीय भूमि को धन्य कर मानवता के आदर्श मूल्यों की स्थापना की। नवमी तिथि को प्रभु श्रीराम के जन्मोत्सव के रूप में मनाने व अखण्ड श्रीराम चरितमानस का पाठ करने से भी अनेक बाधाएँ समाप्त हो जाती हैं तथा जीवन खुशहाल होता है। नवरात्रि में माँ भगवती की आराधना अनेक विद्वानों एवं साधकों ने बताई है। किन्तु सबसे प्रामाणिक व श्रेष्ठ आधार श्दुर्गा सप्तशतीश् है। जिसमें सात सौ श्लोकों के द्वारा भगवती दुर्गा की अर्चना व वंदना की गई है। नवरात्रि में श्रद्धा एवं विश्वास के साथ दुर्गा सप्तशती के श्लोकों द्वारा माँ-दुर्गा देवी की पूजा नियमित शुद्वता व पवित्रता से की या कराई जाय तो निश्चित रूप से माँ प्रसन्न हो इष्ट फल प्रदान करती हैं।
इस पूजा में पवित्रता, नियम व संयम तथा ब्रह्मचर्य का विशेष महत्व है। कलश स्थापना राहु काल, यमघण्ट काल में नहीं करना चाहिए। इस पूजा के समय घर व देवालय को तोरण व विविध प्रकार के मांगलिक पत्र, पुष्पों से सजा सुन्दर सर्वतोभद्र मण्डल, स्वस्तिक, नवग्रहादि, ओंकार आदि की स्थापना विधिवत शास्त्रोक्त विधि से करने या कराने तथा स्थापित समस्त देवी-देवताओं का आवाह्‌न उनके श्नाम मंत्रोंश् द्वारा उच्चारण कर षोडषोपचार पूजा करनी चाहिए जो विशेष फलदायी है। ज्योति जो साक्षात्‌ शक्ति का प्रतिरूप है उसे अखण्ड ज्योति के रूप में शुद्ध देसी घी या गाय का घी हो तो सर्वोत्तम है से प्रज्ज्वलित करना चाहिए। इस अखण्ड ज्योति को सर्वतोभद्र मण्डल के अग्निकोण में स्थापित करना चाहिए। ज्योति से ही आर्थिक समृद्धि के द्वार खुलते हैं। अखण्ड ज्योति का विशेष महत्व है जो जीवन के हर रास्ते को सुखद व प्रकाशमय बना देती है। नवरात्रि में व्रत का विधान भी है जिसमें पहले, अंतिम और पूरे नौ दिनों तक का व्रत रखा जा सकता है। इस पर्व में सभी स्वस्थ्य व्यक्तियों को समर्थ व श्रद्धा अनुसार व्रत रखना चाहिए। व्रत में शुद्ध शाकाहारी व शुद्ध व्यंजनों का ही प्रयोग करना चाहिए। सर्वसाधारण व्रती व्यक्तियों को प्याज, लहसुन आदि तामसिक व माँसाहारी पदार्थों का उपयोग नहीं करना चाहिए। व्रत में फलाहार अति उत्तम तथा श्रेष्ठ माना गया है। भगवती जगदम्बा नवग्रहों, नव अंकोंसहित समस्त ब्रह्माण्ड की दृश्य व अदृश्य वस्तुओं, विद्याओं व कलाओं को शक्ति दे संचालित कर रही हैं। नवरात्रि में नव कन्याओं का पूजन कर उन्हें श्रद्धा के साथ, सामर्थ्य अनुसार भोजन व दक्षिणा देना अत्यंत शुभ व श्रेष्ठ माना गया है। इस कलिकाल में सर्वबाधाओं, विघ्नों से मुक्त होकर सुखद जीवन के पथ पर अग्रसर होने का सबसे सरल उपाय शक्ति रूपा जगदंबा का विधि-विधान द्वारा पूजा-अर्चना ही एक साधन है।
-पं. प्रेमकुमार शर्मा