बुधवार, 28 सितंबर 2011

नैमित्तिक-साधना का महापर्व ‘नवरात्र’

भारतीय चिंतनधारा मेंसाधनाआध्यात्मिक ऊर्जा और दैवी चेतना के विकास का सबसे विश्वसनीय साधन माना जाता है। तन्त्रगमों के अनुसार यह साधना नित्य एवं नैमित्तिक भेद से दो प्रकार की होती है, जो साधना जीवनभर एवं निरंतर की जाती है, वह नित्य साधना कहलाती है।
रुद्रयामल तंत्र के अनुसार ऐसी साधना साधक काधर्महै, किन्तु संसार एवं घर गृहस्थी के चक्रव्यूह में फंसे आम लोगों के पास तो इतना समय होता है और नहीं इतना सामर्थ्य कि वे नित्य साधना कर सकें। अत: सद्गृहस्थों के जीवन में आने वाले कष्टोंध्दुरूखों की निवृत्ति के लिए हमारे ऋषियों ने नैमित्तिक साधना का प्रतिपादन किया है। नैमित्तिक-साधना के इस महापर्व कोनवरात्रकहते हैं।

दुर्गापूजा का प्रयोजन
महामाया के प्रभाववश सांसारिक प्राणी अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर कभी जाने और कभी अनजाने में दुरूखों के दलदल में फंसता चला जाता है। जैसा कि मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है-
ज्ञानिनामपि चेतांहि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रगच्छति।।

इन सांसारिक कष्टों से, जिनको धर्म की भाषा में दुर्गति कहते हैं-इनसे मुक्ति के लिए माँ दुर्गा की उपासना करनी चाहिए क्योंकिआराधिता सैव नृणां भोगस्वगपिवर्गहामार्कण्डेय पुराण के इस वचन के अनुसारमाँ दुर्गा की उपासना करने से स्वर्ग जैसे भोग और मोक्ष जैसी शान्ति मिल जाती है।भारतीय जनमानस उस आद्या शक्तिदुर्गाको माँ या माता के रूप में देखता और मानता है। इस विषय में आचार्य शंकर का मानना है कि जैसे पुत्र के कुपुत्र होने पर भी माता कुमाता नहीं होती। वैसी भगवती दुर्गा अपने भक्तों का वात्सल्य भाव से कल्याण करती है। अतरू हमें उनकी पूजाध्उपासना करनी चाहिए।

नवदुर्गा
एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा’- दुर्गासप्तशती के इस वचन के अनुसार वह आद्यशक्तिएकमेवऔरअद्वितीयहोते हुए भी अपने भक्तों का कल्याण करने के लिए - 1. शैलपुत्री, 2. ब्रह्मचारिणी, 3. चन्द्रघण्टा, 4. कूष्माण्डा, 5. स्कन्धमाता, 6. कात्यायनी, 7. कालरात्रि, 8. महागौरी एवं 9. सिद्धिदात्री - इन नवदुर्गा के रूप में अवतरित होती है। वही जगन्माता सत्त्व, रजस् एवं तमस्- इन गुणों के आधार पर महाबाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करती हैं।

दुर्गा-दुर्गतिनाशिनी
रुद्रयामल तन्त्र में आद्याशक्ति केदुर्गानाम का निर्वचन करते हुए प्रतिपादित किया गया है - ‘कि जो दुर्ग के समान अपने भक्तों की रक्षा करती है अथवा जो अपने भक्तों को दुर्गति से बचाती है, वह आद्याशक्तिदुर्गाकहलाती है।

दुर्गापूजा का काल
वैदिक ज्योतिष की काल-गणना के अनुसार हमारा एक वर्ष देवी-देवताओं का एकअहोरात्र’ (दिन-रात) होता है। इस नियम के अनुसार मेषसंक्रांति को देवताओं का प्रातरूकाल और तुला संक्रांति को उनका सायंकाल होता है।
इसी आधार पर शाक्त तन्त्रों ने मेषसंक्रांति के आसपास चेत्र शुक्ल प्रतिपदा से बासन्तिक नवरात्रि और तुला संक्रांति के आसपास आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र का समय निर्धारित किया है। नवरात्रि के ये नौ दिनदुर्गा पूजाके लिए सबसे प्रशस्त होते हैं।

शारदीय नवरात्र का महत्व
इन दोनों नवरात्रियों में शारदीय नवरात्र की महिमा सर्वोपरि है।शरदकाले महापूजा क्रियते या वाष्रेकी।दुर्गा सप्तशती के इस वचन के अनुसार शारदीय नवरात्र की पूजा वार्षिक पूजा होने के कारणमहापूजाकहलाती है। गुजरात-महाराष्ट्र से लेकर बंगाल-असम तक पूरे उत्तर भारत में इन दिनोंदुर्गा पूजाका होना, घर-घर में दुर्गापाठ, व्रत-उपवास एवं कन्याओं का पूजन होगा - इसकी महिमा और जनता की आस्था के मुखर साक्ष्य हैं।

कन्या-पूजन
अपनी कुल परम्परा के अनुसार कुछ लोग नवरात्र की अष्टमी को और कुछ लोग नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा एवं हवन करने के बाद कन्यापूजन करते हैं। कहीं-कहीं यह पूजन सप्तमी को भी करने का प्रचलन है। कन्या पूजन में दो वर्ष से दस वर्ष तक की आयु वाली नौ कन्याओं और एक बटुक का पूजन किया जाता है। इसकी प्रक्रिया में सर्वप्रथम कन्याओं के पैर धोकर, उनके मस्तक पर रोली-चावल से टीका लगाकर, हाथ में कलावा (मौली) बाँध, पुष्प या पुष्पमाला समर्पित कर कन्याओं को चुनरी उढ़ाकर हलवा, पूड़ी, चना एवं दक्षिणा देकर श्रद्धापूर्वक उनको प्रणाम करना चाहिए। कुछ लोग अपनी परंपरा के अनुसार कन्याओं को चूड़ी, रिबन श्रृंगार की वस्तुएं भी भेंट करते हैं। कन्याएं माँ दुर्गा का भौतिक एक रूप हैं। इनकी श्रृद्धाभक्ति से पूजा करने से माँ दुर्गा प्रसन्न होती हैं।

नवरात्र में उपवास
व्रतराज के अनुसार नवरात्र के व्रत में - ‘निराहारो फलाहारो मिताहारो हि सम्मतरू’ - अर्थात् निराहार, फलाहार या मिताहार करके व्रत रखना चाहिए। निराहार व्रत में केवल एक जोड़ा लौंग के साथ जल पीकर व्रत रखा जाता है। फलाहारी व्रत में एक समय फलाहार की वस्तुओं से भोजन किया जाता है, और मिताहारी व्रत में शुद्ध, सात्विक एवं शाकाहारीहविष्यान्नका ग्रहण होता है। नवरात्रि के व्रत में नौ दिन व्रत रखकर नवमी को कन्या पूजन के बाद पारणा किया जाता है। जिन लोगों के अष्टमी पुजती है, वे अष्टमी को कन्या पूजन के बाद पारणा कर लेते हैं। यदि नौ दिन का व्रत रखने का सामर्थ्य हो, तो नवरात्र की प्रतिपदा, सप्तमी अष्टमी एवं नवमी में किसी एक या दो दिन का व्रत अपनी श्रद्धा एवं शक्ति के अनुसार रखना चाहिए। तन्त्रगम के अनुसार व्रत के दिनों में आचार एवं विचार की शुद्धता का पालन करने पर जोर दिया गया है। अतरू व्रत के दिनों में चोरी, झूठ, क्रोध, ईर्ष्या, राग, द्वेष एवं किसी भी प्रकार का छल-छिद्र नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्रत के दिनों में मन, वचन एवं कर्म से किसी का दिल दुरूखाना नहीं चाहिए। जहां तक सम्भव हो, दूसरों का भला करना चाहिए।

पूजा के उपचार
पूजा में जो सामग्री चढ़ाई जाती है, उनको उपचार कहते हैं, ये पंचोपचार, दशोपचार एवं षोडशोपचार के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। पंचोपचार - गन्ध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य - इन पाँचों को पंचोपचार कहते हैं। दशोपचार -1 पाध, 2. अर्घ्य, 3. आचमनीय, 4. मधुपर्क, 5. आचमनीय, 6. गन्ध, 7. पुष्प, 8. धूप, 9. दीप एवं 10. नैवेद्य - इनको दशोपचार कहते हैं। षोडशोपचार - 1. आसन, 2. स्वागत, 3. पाध, 4. अर्घ्य, 5. आचमनीय, 6. मधुपर्क, 7. आचमन, 8. स्नान, 9. वस्त्र, 10. आभूषण, 11. गन्ध, 12. पुष्प, 13. धूप, 14. दीप, 15. नैवेद्य एवं प्रणामाज्जलि, इनको षोडशोपचार कहते हैं।

व्रत के फलाहार की वस्तुएं
आलू, शक रकन्द, जिमिकन्द, दूध, दही, खोआ, खोआ से बनी मिठाइयों, कुट्ट, सिन्घाड़ा, साबूदाना, मूंगफली, मिश्री, नारियल, गोला, सूखे मेवा एवं मौसम के सभी फल-व्रतोपवास के फलाहार में प्रशस्त माने गये हैं। फलाहार की कोई भी वस्तु तेल में नहीं बनायी जाती और सादा नमक के स्थान पर सैन्धा (लाहौरी) नमक प्रयोग में लाया जाता है।

सप्तमी, अष्टमी या नवमी की पूजा
नवरात्र में अपनी कुल परम्परा के अनुसार सप्तमी, अष्टमी या नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा की जाती है। इसमें एकाग्रतापूर्वक जप, श्रद्धा एवं भक्ति से पूजन एवं हवन, मनोयोगपूर्वक पाठ तथा विधिवत कन्याओं का पूजन किया जाता है। इससे मनुष्य की सभी कामनाएं पूरी हो जाती हैं।

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